मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय और उनकी रचनाएँ ! munshi premchand ka jeevan parichay
प्रेमचन्द का जन्म लमही ग्राम (वाराणसी) के एक कृषक परिवार में सन् 1880 ई० में हुआ। इन्होंने बी०ए० तक शिक्षा प्राप्त की। प्रेमचन्द को बाल्यावस्था से ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जीवन की विषम परिस्थितियों में उनका अध्ययनक्रम चला। इस बीच इन्होंने उर्दू का विशेष ज्ञान प्राप्त किया। जीवन-संघर्ष में जूझते हुए ये एक स्कूल अध्यापक से ऊपर उठकर स्कूलों से सब-इंस्पेक्टर पद पर भी आसीन हुए।
हिन्दी साहित्य के संवर्द्धन में प्रेमचन्द का अपूर्व योगदान रहा। उपन्यास-सम्राट तथा श्रेष्ठ कहानीकार के रूप में हिन्दी साहित्य में इनको विशेष गौरव तो मिला ही है; सम्पादक, अनुवादक, नाटककार, निबन्ध लेखक आदि के रूप में भी इनको प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। ये जीवन-संग्राम में निरन्तर कर्मवीर बने रहे। इनके कृतित्व में जीवन-सत्य का आदर्श रूप उभरकर आया है, जिसके फलस्वरूप ये एक सार्वभौम कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित हो सके हैं। सन् 1936 ई० में इनका निधन हो गया।
साहित्यिक परिचय
‘हंस‘ एवं ‘जागरण‘ नामक पत्र भी निकाले। मुंशी प्रेमचंद उर्दू रचनाओं में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखते थे। उनकी रचनाएँ आदर्शोन्मुख यथार्थवादी हैं, जिनमें सामान्य जीवन की वास्तविकताओं का सम्यक् चित्रण किया गया है। समाज-सुधार एवं राष्ट्रीयता उनकी रचनाओं के प्रमुख विषय रहे!
उसमें किसानों की दशा, उनके साहित्य में ऐसे तत्त्व भी विद्यमान हैं, जो उसे शाश्वत और स्थायी बनाते हैं। मुंशी प्रेमचंद जी अपने युग के उन सिद्ध कलाकारों में थे, जिन्होंने हिन्दी को नवीन युग की आशा-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का सफल माध्यम बनाया।
भाषा
मुंशी प्रेमचंद जी की भाषा पात्रों के अनुसार परिवर्तित हो जाती है।
विचारधारा
सेवासदन के दौर में वे यथार्थवादी समस्याओं को चित्रित तो कर रहे थे लेकिन उसका एक आदर्श समाधान भी निकाल रहे थे। 1936 तक आते-आते महाजनी सभ्यता, गोदान और कफ़न जैसी रचनाएँ अधिक यथार्थपरक हो गईं, किंतु उसमें समाधान नहीं सुझाया गया।
. प्रेमचंद का विवाह किससे हुआ था?
पहली पत्नी को छोड़ने के बाद उन्होंने दूसरा विवाह 1906 में शिवारानी देवी से किया जो एक महान साहित्यकार थीं।
प्रेमचन्द के 5 कहानी-संग्रह हैं-
ये अपनी कहानियों में दमन, शोषण एवं अन्याय के विरुद्ध आवाज बुलन्द करते तथा सामाजिक विकृतियों पर व्यंग्य के माध्यम से चोट करते रहे हैं। रचना-विधान को द इनकी कहानियाँ सरल एवं सरस हैं तथा उनमें जीवन में नवचेतना भरने की अपूर्व क्षमता विद्यमान है। प्रेमचन्द की कहानी-रचना का केन्द्रबिन्दु मानव है। इनकी कहानियों में लोक जीवन के विविध पक्षों का म प्रस्तुतिकरण हुआ है।
बलिदान
अब उसे कोई कल्लू कहे तो आँखे लाल-पीली करता है। इसी प्रकार हरखचन्द्र कुरमी अब हरखू हो गया है। लेकिन दस-पाँच दिन में वह बिना दवा खाए हो चंगा हो जाता था। इस वर्ष भी कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझकर कि अच्छा तो हो उसने कुछ परवा न की। परन्तु अबकी ज्वर मौत का परवाना लेकर चला था। एक सप्ताह बोता, दूसरा सप्ताह बीता, पूरा महीना बीत गयाः पर हरख चारपाई से न उठा।
(2)
हरखू के खेत गाँववालों की नजर पर चढ़े हुए थे। पाँचो बीघा जमीन कुएँ के निकट, खाद पौस से लदी हुई मेड़ बाँध से तोक थी। उनमें तीन-तीन फसले पैदा होती थी। हरखू के मरते ही उन पर चारों ओर से धाबे होने लगे। गिरधारी तो क्रिया-कर्म में फंसा हुआ था। उधर गाँव के मनचले किसान, लाला ओकारनाथ को चैन न लेने देते थे, नजराने की बड़ी-बड़ी रकमें पेश हो रही थी। कोई सालभर का लगान पेशगी देने को तैयार था,
(3)
गिरधारी उदास और निराश होकर घर आया। 100 रुपये का प्रबन्ध करना उसके कामे बाहर या सोचने अगर दोनों बैल बेब दूं तो खेत ही लेकर क्या करूंगा? घर बेचूं तो यहाँ लेने वाला ही कौन है?और फिर बा-दादों का नाम डूबता है। चार-पाँच पेड़ है, लेकिन उन्हें बेचकर 25 रुपयेगा 30 रुपये से अधिक न मिलेंगे। तूं तो देता कौन है? अभी बनिये के 50 रुपये सिर पर चढ़े हैं। वह एक पैसा भी न देगा। घर में गहने भी तो नहीं है।
उनके नाम उसकी जिहा पर उसी तरह आते थे, जिस तरह अपने तीनों बच्चों के कोई चीचोगी कोई बाभी था, कोई नालेवाला, कोई तानयावाला। इन नामों के स्मरण होते ही खेतों का चित्र उसको आँखों के सामने बिच जाता था। यह इन खेतों को चर्चा इस तरह करता, मानो वे सजीव है। मानो उसके भले-बुरे के साथी है। उसके जीवन की सारी आशाएँ सारी इच्याई सारे मनसूबे, सारी सत्र की मिता, सारे माई किले इन्नों खेोतोपर चत थे।
(4)
लेकिन सुभागों यों चुपचाप बैठनेवाली स्त्री न थी। वह क्रोध से भरी हुई कालिकादीन के पर गई और उयक स्त्री को खूब लबेड़ा-कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले हैं देखें, कौन मेरी खेत में हल से जाता है। अपना और उसका लोहू एक कर दूँ। पढौसियों ने उसका पक्ष लिया, सब तो है, आपस में यह चढ़ा-उतरी र करना चाहिए। नारायण ने धन दिया, तो क्या गरीबों को कुचलते सुभागों ने समझा, मैंने मैदान मार लिया। उसका चिन्त शान्त हो गया।
(5)
कि मंगलसिंह आए और इयर-उपर की बाते करके बोले- "गोई को बाँधकर कब तक खिलाओगे? निकाल क्यों नहीं देते?" गिरधारी ने मलिन भाव से कहा- "हाँ, कोई गाहक आये तो निकाल हूँ।"
मंगलसिंह "एक गाहक तो हमों है, हमी को दे दो।"
गिरधारी अभी कुछ उत्तर न देने पाया था कि तुलसी बनिया और गरजकर बोला- "गिरधर, तुम्हें रुपये देने हैं कि नहीं वैसा कहो। तीन महीने से हीलाहवाला करते चले आते हो।