कुंभ मेले में मुसलमानों की नो एंट्री जायज
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने यह मांग रखी है कि कुंभ मेले में मुस्लिम व्यापारियों को दुकानें न लागाने का आदेश जारी किया जाए. वहीं बागेश्वर बाबा धीरेंद्र शास्त्री समेत कई अन्य धर्माचार्यों ने भी इस मांग का समर्थन किया है. जिसके बाद से मुसलमानों की कुंभ में नो एंट्री को लेकर बहस शुरू हो गई है.
यह भी आख्यान मिलता है, कि उसी समय प्रयाग के कुम्भ मेले में आदि शंकराचार्य प्रसिद्ध विद्वान कुमारिल भट्ट से मिलने आए थे. मगर कुमारिल भट्ट अपने गुरु से विश्वासघात करने के कारण आहत थे. वो शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करने के पहले ही अग्नि में प्रवेश कर गए. शंकराचार्य से उनका कोई शास्त्रार्थ नहीं हो सका.
गुरुद्रोह के प्रायश्चित के लिए आत्मदाह
आदि शंकराचार्य के कुछ समय पहले देश में बौद्ध मत इतना शक्तिशाली और लोक में व्याप्त हो गया था कि वैदिक मत को लोग भूल चुके थे. ऐसे में कुमारिल भट्ट ने सनातन मत को पुनर्स्थापित किया था. बौद्ध धर्म का खंडन करने के लिए उन्होंने इसमें दीक्षा ली और अपने बौद्ध ग़ुरु के सिद्धांतों को आत्मसात कर उनका खंडन किया. मगर बाद में उन्हें प्रतीत हुआ कि उन्होंने अपने गुरु से द्रोह किया इसलिए उन्होंने प्रयाग के कुम्भ मेले में आत्मदाह कर लिया. जब उन्होंने आत्मदाह किया तब आदि शंकराचार्य वहां थे, लेकिन दोनों के बीच कोई संवाद नहीं हो सका था.
कुमारिल भट्ट ने वेदों को अपौरुषेय घोषित किया. परंतु बौद्ध विद्वान उन्हें सगुण ब्रह्म का प्रतिपादक बताते रहे हैं. वो मंडन मिश्र और भवभूति के गुरु थे. यह भी कहा जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन कुमारिल का प्रशंसक था.
विरोधी भी आपस में करते थे शास्त्रार्थ
उस समय कुम्भ में मेले में किसी को भी परस्पर विरोधी विचार, मंतव्य या पंथ के प्रचार-प्रसार पर कोई रोक न थी. अक्सर विजेता विद्वान को पुरस्कार मिलता और वहां आई हुई जनता विजेता के विचारों के साथ चली जाती. किसी को इससे कोई विरोध नहीं होता था. यह समागम होता ही इसलिए रहा है ताकि सारे विचारों का संगम हो सके. तमिल संगमन की तर्ज पर यह हिंदुओं के अनेक संप्रदायों के बीच वाद-विवाद का जरिया था. सम्राट हर्षवर्धन स्वयं बौद्ध मतावलंबी था, किंतु वैदिकों का भी वह सम्मान करता था. श्रमण और ब्राह्मण दोनों को परस्पर शास्त्रार्थ करने दिया जाता था. बाद में भी यहां सिर्फ वैष्णव, शैव, शाक्त, वामाचारी आदि सभी पंथों के साधु-संत जुटने लगे. ये सभी लोग परस्पर वाद-विवाद करते. जैन, बौद्ध साधुओं के भी शिविर लगते. किसी को भी यहां आने से मनाही नहीं रही.
तैमूर लंग ने किया कुम्भ पर पहला हमला
भारत में चाहे जो भी शासक रहा हो, किसी ने भी इस जमावड़े में किसी के भी आवा-जाही पर न रोक लगाई, न यहां कोई लूट-पाट की. अलबत्ता हरिद्वार कुम्भ पर तैमूर लंग ने 1398 ईस्वी में हमला किया था. हजारों श्रद्धालु इस हमले में मारे गए थे. उस समय भारत सल्तनत के अधीन था और फिरोज शाह तुगलक यहां का शासक था, लेकिन तैमूर एक हमलावर था, उसने दिल्ली में एक लाख लोगों का कत्ल किया था.
17वीं सदी की पुस्तक खलासत-उल-तवारीख में कुम्भ मेले में नरसंहार का जिक्र है. जब तैमूर लंग हमला करते हुए भारत आया तो उसे पता चला कि हरिद्वार में बहुत सारे लोग खूब पैसा लेकर इकट्ठा हुए हैं. उसने वहां धावा बोला और हजारों लोगों को मार दिया. तैमूर ने अपनी आत्मकथा तुजक-ए-तैमूर में लिखा है दिल्ली जीत लेने के बाद पता चला कि कुटिला घाटी (हरिद्वार) में बहुत से हिंदू लोग अपनी पत्नी एवं बच्चों के साथ आए हुए हैं, उनके साथ बहुत सारी धन-दौलत एवं पशु इत्यादि हैं, तो यह समाचार पाकर मैं तीसरे पहर की नमाज अदा कर अमीर सुलेमान के साथ दर्रा-ए-कुटिला की ओर रवाना हुआ. तैमूर के इतिहासकार शरीफुद्दीन याजदी ने कहा है कि हजारों हिंदू इस स्थान पर मारे गए थे.
गृहस्थों के स्नान पर रोक लगी
इसके बाद से हरिद्वार कुम्भ में गृहस्थों के लिए रोक लगा दी गई और हमलावरों से रक्षा के लिए 1565 में मधुसूदन सरस्वती ने ऐसे साधुओं की सेना खड़ी की जो कुम्भ में हमलावरों से स्नान करने आने वालों की रक्षा कर सके. अकबर के वक्त में हिंदू गृहस्थ फिर से हरिद्वार जाने लगे. खुद राजा मानसिंह कई बार हरिद्वार कुम्भ में गए. हरिद्वार कुम्भ में और भी कई नर-संहार हुए, परंतु वे पंथों के बीच पारस्परिक प्रतिद्वंदिता से हुए.
1760 में हरिद्वार कुम्भ के दौरान शैव और वैष्णव सम्प्रदाय के साधु परस्पर भिड़ गए. इसमें 1800 साधुओं की जान गई थी. इसके बाद फिर हरिद्वार कुम्भ सिर्फ संन्यासियों के लिए हो गया. इसी बीच 10 अप्रैल 1796 में पंजाब के उदासी संप्रदाय और गुसाईयों के बीच झंडा गाड़ने की जगह को लेकर टकराव हुआ. पंजाब से आए उदासी साधुओं के साथ पटियाला के 10-12 हजार सिख घुड़सवार थे. इन लोगों ने गुसाईयों पर हमला किया. उसमें कई स्त्री-पुरुष मारे गए थे.
कई बार नहीं हुआ हरिद्वार कुम्भ
1803 में दूसरे आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद अपर दो-आब अंग्रेजों के पास चला गया. इसलिए हरिद्वार कुम्भ आम लोगों के लिए बंद हो गया. इसके बाद 1820 में हरिद्वार कुम्भ पड़ा तो भगदड़ मच गई, जिसमें करीब 500 लोग मारे गए थे. बाद के दो कुम्भ में आम जनता नहीं आई. 1856 में सिर्फ साधु आए. बाद में पता चला कि इनमें वे साधु भी थे, जिन्होंने कम्पनी सरकार के खिलाफ लोगों को भड़काया.
इसके बाद से 1906 के हरिद्वार कुम्भ का पता चलता है, जिसमें सबसे बड़ा शामियाना पटियाला की महारानी का था. फिर देश में इंफ़्ल्यूइंजा फैल गया, जिसकी वजह से 1918 का कुम्भ नहीं हुआ. 1945 में प्लेग के कारण सब जगह के कुम्भ मेले प्रतिबंधित कर दिए गए. सिर्फ साधु लोग ही स्नान कर सकते थे. 1950 के हरिद्वार कुम्भ में गृहस्थ लोग भी आए थे.
अमृत कलश छलके!
करोड़ों आस्थावान हिंदू कुम्भ मेलों में आते ही हैं, साथ में वे लोग भी जो हिंदुओं के परंपरागत विचारों से अलग मत वाले हैं. कबीरपंथी, नानकपंथी, लिंगायत और सिख संप्रदाय के लोग भी यहां जुटते हैं. प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक चार स्थानों पर कुम्भ मेला वर्षों से लगता आ रहा है. हिंदू कहते हैं, कुम्भ मेला उन्हीं स्थानों पर लगता है, जहां अमृत की बूंदें गिरी थीं. पौराणिक मान्यता है कि देवों और दैत्यों ने जब समुद्र मंथन किया तब जो 14 रत्न निकले, उनमें से एक अमृत भी था.
अमृत को ले कर दोनों में खींचतान शुरू हो गई. उस समय तक देवराज इंद्र की प्रभुता दुर्वासा ऋषि के श्राप की वजह से कमजोर पड़ गई थी. उन्होंने अपने बेटे जयंत को इशारा किया कि अमृत का घड़ा ले कर भाग जाओ. जिसके बाद दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य के आदेश पर दैत्यों ने उसका पीछा किया.
विष्णु का मोहिनी रूप
दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश के लिए दोनों के बीच मार-काट शुरू हो गई. 12 दिनों तक घोर युद्ध चला. इस आपाधापी में घड़ा छलक गया और कुछ बूंदें प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिरीं. सूर्य और चंद्र ने देवताओं की मदद की और शनि ने इंद्र के भय से इस दौरान अमृत के घड़े की रक्षा की. बाद में स्वयं भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दोनों को शांत किया. मोहिनी ने सबके बीच अमृत बांट दिया. चूंकि यह युद्ध 12 दिन चला और देवताओं का एक दिन पृथ्वी लोक के 12 वर्षों के बराबर होते हैं, इसलिए हर 12वें वर्ष कुम्भ मेला इन चारों स्थानों पर लगता है.
12 दिन अर्थात् 12 गुणे 12 यानी 144 वर्ष में महाकुंभ होता है, जो प्रयाग में ही आयोजित होता है. प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में कब कुम्भ मेला होगा, इसकी ज्योतिषीय गणनाएं अलग-अलग हैं. इन्हीं गणनाओं के आधार पर हर तीन वर्ष के अंतर में कहीं न कहीं कुम्भ मेला आयोजित होता है. मकर संक्रांति से शुरू होने वाले आयोजनों में भारत के हर क्षेत्र और दिशा से साधू-संत आकर अपने शिविर लगाते हैं.
व्यापारियों का भी कुम्भ
लेकिन अब यह व्यापारियों का कुम्भ हो गया है. देश के कोने-कोने से व्यापारी यहां आते हैं. दुनिया भर में कुम्भ की प्रतिष्ठा है, वहां से भी कई उत्साही पत्रकार, कॉरपोरेट के प्रोफेशनल भी आते हैं. सबका मकसद होता है, कुम्भ के जरिए अपने व्यापार को बढ़ाना और अपने उत्पाद के लिए ग्राहक तलाशना. यह अवसर भला कौन व्यापारी खोना चाहेगा. इसलिए पहली बार यह कहा गया है, मुसलमान व्यापारी यहां अपनी दुकानें न लगाएं. अभी तक के ज्ञात इतिहास में किसी भी शासक या व्यापारी संगठन ने ऐसी कोई मांग नहीं की है.
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के समक्ष मांग रखी है, कि मेले में मुस्लिम व्यापारियों को दुकानें न लागाने का आदेश जारी किया जाए. बागेश्वर बाबा धीरेंद्र शास्त्री समेत कई अन्य धर्माचार्यों ने इस मांग का समर्थन किया है.
मक्का-मदीना से तुलना करना गलत
कुछ साधुओं और कट्टर हिंदुओं का कहना है कि जब मुसलमान अपने मक्का-मदीना में हिंदुओं को नहीं प्रवेश देते तो हम उन्हें कुम्भ में क्यों घुसने दें. पहली बात तो मक्का और मदीना दुनिया भर के मुस्लिम समुदाय की आस्था का केंद्र है. वह कोई मेला नहीं है. अपने आस्था केंद्रों में विधर्मियों के प्रवेश की वर्जना उस समुदाय विशेष की इच्छा है. हिंदुओं के भी कई मंदिरों में मुसलमानों और ईसाइयों के प्रवेश पर रोक लगी है.
भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर में यह साफ तौर पर लिखा हुआ है. पुरी के जगन्नाथ मंदिर में तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक को नहीं जाने दिया गया था. मगर कुम्भ मेला परस्पर मिलन का आयोजन है. दुनिया भर के लोग यहां आते हैं, मिलते हैं, बतियाते हैं और धर्मचर्चा करते हैं. इसलिए कुम्भ में किसी धर्म-विशेष के लोगों के लिए नो एंट्री पर विचार करना चाहिए.