Pratapgarh History प्रतापगढ़ जिला के बारे में जानकारी, तथ्य और सभी प्रकार के
Pratapgarh History प्रतापगढ़ जिला के बारे में जानकारी, तथ्य और सभी प्रकार के
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख जिला है। जो सन् १८५८ में अस्तित्व में आया। प्रतापगढ़-कस्बा जिले का मुख्यालय है। ये जिला इलाहाबाद मंडल का एक हिस्सा है। ये जिला २५° ३४’ और २६° ११’ उत्तरी अक्षांश) एवं ८१° १९’ और ८२° २७’ पूर्व देशान्तर रेखांओं पर स्थित है।प्रतापगढ़ शहर में जल स्तर सन् २०१२ के अनुसार ८० फिट से लेकर १४० फिट तक है। ये जिला इलाहाबाद फैजाबाद के मुख्य सड़क पर, ६१ किलोमीटर इलाहाबाद से और ३९ किलोमीटर सुल्तानपुर से दूर पड़ता है।
राज्य उत्तर प्रदेश का एक जिला है, इसे लोग बेल्हा भी कहते हैं, क्योंकि यहां बेल्हा देवी मंदिर है जो कि सई नदी के किनारे बना है। इस जिले को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से काफी अहम माना जाता है। यहां के विधानसभा क्षेत्र पट्टी से ही देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं॰ जवाहर लाल नेहरू ने पदयात्रा के माध्यम से अपना राजनैतिक करियर शुरू किया था। इस धरती को रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि आचार्य भिखारीदास और राष्ट्रीय कवि हरिवंश राय बच्चन की जन्मस्थली के नाम से भी जाना जाता है। यह जिला धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी कि जन्मभूमि और महात्मा बुद्ध की तपोस्थली है।
स्थानीय राजा, राजा प्रताप बहादुर, जिनका कार्यकाल सन् १६२८ से लेकर १६८२ के मध्य था, उन्होने अपना मुख्यालय रामपुर के निकट एक पुराने कस्बे अरोर में स्थापित किया। जहाँ उन्होने एक किले का निर्माण कराया और अपने नाम पर ही उसका नाम प्रतापगढ़ (प्रताप का किला) रखा। धीरे-धीरे उस किले के आसपास का स्थान भी उस किले के नाम से ही जाना जाने लगा यानि प्रतापगढ़ के नाम से। जब 1858 में जिले का पुनर्गठन किया गया तब इसका मुख्यालय बेल्हा में स्थापित किया गया जो अब बेल्हा प्रतापगढ़ के नाम से विख्यात है। बेल्हा नाम वस्तुतः सई नदी के तट पर स्थित बेल्हा देवी के मंदिर से लिया गया था।
तीर्थराज प्रयाग के निकट पतित पावनी गंगा नदी के किनारे बसा प्रतापगढ़ जिला एतिहासिक एवं धार्मिक दृष्टि से काफी महत्तवपूर्ण माना जाता है।उत्तर प्रदेश का यह जिला रामायण तथ महाभारत के कई महत्तवपूर्ण घटनाओं का साक्षी रहा है। मान्यता है कि बेल्हा की पौराणिक नदी सई के तट से होकर प्रभु श्रीराम वनगमन के समय आयोध्या से दक्षिण की ओर गए थे। उनके चरणो से यहाँ की नदियों के तट पवित्र हुए हैं। भगवान श्रीराम के वनवास यात्रा में उत्तर प्रदेश के जिन पाँच प्रभुख नदियों का जिक्र रामचरित्रमानस में है, उनमे से एक प्रतापगढ़ की सई नदी है।
सई नदी-यह नदी हरदोई के उत्तर में निकलती है और उस जिले को पार करते हुए लखनऊ, उन्नाव और रायबरेली को पार करते हुए पश्चिम में अटेहा के मुस्तफाबाद में प्रतापगढ़ में प्रवेश करती है। सबसे पहले इसका मार्ग बहुत ही कठिन होता है, जिसमें कई मोड़ और अंतर्विरोध होते हैं जो बड़े और छोटे लूप बनाते हैं, और उपजाऊ ऊपरी भूमि को घेरते हैं। रामपुर और अटेहा के बीच सीमा बनाने के बाद, यह प्रतापगढ़ के मध्य परगना के ऊपरी हिस्से से कुछ किलोमीटर के लिए पूर्व की ओर से गुजरता है, फिर बड़े-बड़े मोड़ों की एक श्रृंखला में उतरते और चढ़ते हुए जिला मुख्यालय तक पहुँचता है। इस बिंदु से यह दक्षिण की ओर मुड़ता है और फिर दक्षिण-पूर्व, प्रतापगढ़ तहसील की चरम पूर्वी सीमा तक। खंभोर में तहसील पट्टी में प्रवेश करते हुए, यह उत्तर में कोट बिलखर के प्राचीन किले के रूप में उत्तर की ओर झुकता है, और फिर दक्षिण-पूर्व, जिले को दानवान गांव में छोड़कर प्रतापगढ़ के माध्यम से 72 किलोमीटर के पाठ्यक्रम के बाद जौनपुर में प्रवेश करता है। यह अंततः जौनपुर शहर से लगभग 32 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में गोमती में मिल जाती है।
शुष्क मौसम में सई संकरी, उथली और आसानी से चलने योग्य होती है, जबकि इसकी सहायक नदियाँ केवल खड्ड बन जाती हैं; लेकिन बारिश में नदी नदी में पानी की एक बड़ी मात्रा ले जाती है, जो काफी स्तर तक बढ़ जाती है और एक महान वेग प्राप्त कर लेती है। नदी के टेढ़े-मेढ़े मोड़, हालांकि अपने पूरे पाठ्यक्रम में अंतराल पर अक्सर होते हैं, जिले में इसके प्रवेश पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाता है। ऐसा लगता है कि वे कठोर मिट्टी और कंकर चट्टानों के प्रतिरोध से बने हैं, जिसने नदी को मजबूर किया
नरम आसपास की भूमि को छेदने के लिए एक तरफ मुड़ें। सईं के किनारे कई जगहों पर ऊंचे हैं और आमतौर पर अच्छी तरह से परिभाषित हैं। कहीं-कहीं वे खड्डों से टूटते और छेदे जाते हैं जो कभी-कभी कई सौ मीटर तक फैल जाते हैं, जबकि अन्य जगहों पर वे लंबी समानांतर लहरों में धीरे-धीरे नदी तल की ओर ढल जाते हैं। इस क्षेत्र में आमतौर पर उनकी खेती की जाती है, लेकिन आम तौर पर किनारों में उबड़-खाबड़ मिट्टी के साथ ऊंची और टूटी हुई जमीन होती है, अधिक ऊंचे हिस्से खड़ी अलग-अलग टीले की तरह खड़े होते हैं, वनस्पति से रहित या मोटे घास से ढके होते हैं। टूटी हुई जमीन अलग-अलग दूरियों के लिए अंतर्देशीय फैली हुई है और कभी-कभी चौड़ाई में लगभग एक किलोमीटर होती है। कुछ जगहों पर किनारे आम और महुआ के घने पेड़ों से आच्छादित हैं, जो बाढ़ की पहुंच से थोड़ी दूर हैं।
संस्कृति और विरासत
प्रतापगढ़ में आपको हर वर्ग के लोग मिल जायेंगे। अमीर, गरीब, अनपढ़, पढ़े-लिखे, किसान इत्यादि। जातिय विविधता भी यहाँ पर आपको बहुतायत में देखने को मिल जायेगी। जैसेः- हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख व ईसाई। हिन्दुओं का वर्चस्व प्रतापगढ़ में शुरु से ही रहा है। स्लिम तबका भी बेगमवाट नामक जगह पर बहुलता में देखा जा सकता है। जहाँ करीगरों की भरमार है। लोहे की आलमारियों से लेकर बिस्कुट फैक्टरियाँ तक इस जगह पर, आपको गली के किसी न किसी छोर पर मिल जायेंगी। दूसरी तरफ पंजाबी मार्केट, पंजाबियों का गढ़ माना जाता है। कपड़ों के व्यवसाय पर इनका दबदबा आज भी है। कपड़ों की खरीद-फरोख्त के लिये पंजाबी मार्केट सबसे उपयुक्त जगह मानी जाती है। कुछ साल पहले महिलाओं को सड़कों पर उतना नहीं देखा जा सकता था लेकिन आज माहौल काफी बदल चुका है। आधुनिकता की हवा यहाँ भी तेजी से चल निकली है। लड़कियाँ और महिलायें सड़कों पर घूम-घूम कर खरिदारी करती हुई आपको नजर आ जायेंगी। परिधानों में मुख्यता साड़ी, सलवार-सूट की बहुलता देखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त लड़कियाँ भिन्न-भिन्न लिबासों में आपको नजर आ सकती है। जिनमें जिन्स-टीशर्ट, लाँग स्कर्ट प्रमुख हैं। कुछ मुस्लिम महिलायें आज भी बुर्के में दिख जाती है। जल्द ही दिल्ली व मुम्बई की तरह यहाँ भी परिधानों में आधुनिक व्यापकता दिखाई पड़ेगी।
शनि देव मंदिर
दिशाप्रतापगढ़ जिले के विश्वनाथगंज बाजार से लगभग २ किलो मीटर दूर कुशफरा के जंगल में भगवान शनि का प्राचीन पौराणिक मन्दिर लोगों के लिए श्रद्धा और आस्था के केंद्र हैं। कहते हैं कि यह ऐसा स्थान है जहां आते ही भक्त भगवान शनि जी की कृपा का पात्र बन जाता है। चमत्कारों से भरा हुआ यह स्थान लोगों को सहसा ही अपनी ओर खींच लेता है। यह धाम बाल्कुनी नदी के किनारे स्थित है। जो की अब बकुलाही नाम से भी जानी जाती है। अवध क्षेत्र के एक मात्र पौराणिक शनि धाम होने के कारण प्रतापगढ़ (बेल्हा) के साथ-साथ कई जिलों के भक्त आते हैं।
बेला देवी
दिशाप्रतापगढ़ स्थित सई नदी के किनारे पर ऎतिहासिक बेल्हा माई का मंदिर है। जिले के अधिकांश भू-भाग से होकर बहने वाली सई नदी के तट पर नगर की अधिष्ठात्री देवी मां बेल्हा देवी का यह मंदिर स्थित है। सई नदी के तट पर माँ बेल्हा देवी का भव्य मंदिर होने के कारण जिले को बेला अथवा बेल्हा के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर की स्थापना को लेकर पुराणों में कहा गया है कि राजा दक्ष द्वारा कराएजा रहे यज्ञ में सती बगैर बुलाए पहुंच गईं थीं। वहां शिव जी को न देखकरसती ने हवन कुंड में कूदकर जान दे दी। जब शिव जी सती का शव लेकर चले तोविष्णु जी ने चक्र चलाकर उसे खंडित कर दिया था। जहां-जहां सती के शरीर काजो अंग गिरा, वहां देवी मंदिरों की स्थापना कर दी गई। यहां सती का बेला का (कमर) भाग गिरा था। भगवान राम जब वनवास (निर्वासन) के लिए जा रहे थे तब सई नदी के किनारे पर उन्होंने मंदिर में माँ बेल्हा देवी जी का पूजन अर्चन किया था। माता रानी के समक्ष सच्चे मनसे मांगी गई हर मुराद जरूर पूरी होती है।
घुस्मेश्वर नाथ धाम
दिशाधार्मिक और अध्यात्मिक और पौराणिक विशिष्टता के कारण यह शिव धाम करोड़ो श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। भगवान घुश्मेश्वर जी का यह धाम बाबा घुइसरनाथ धाम नाम से मानव समाज के प्राण में बस गया है। यहाँ भगवान घुश्मेश्वरज्योतिर्लिंग का बहुत विशाल मंदिर है। अवध के उत्तरी क्षेत्र बेल्हा में घुइसरनाथ धाम में स्थित बाबा घुश्मेश्वर नाथ मंदिर भारत के जागृत १२ ज्योतिर्लिंग में अति महत्वपूर्ण है।ज्योतिर्लिंग के बारहवें ज्योतिर्लिंग के रूप में बाबा घुश्मेश्वर नाथ की प्रसिद्ध सम्पूर्ण अवध में है। जिस आस्था श्रद्धा विश्वास के साथ दिनानुदिन यहां आने वाले श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है। वह किसी तर्क वितर्क की अपेक्षा नहीं रखती अपितु आत्मा की सहज परमात्मा को उपलब्ध कराने की सनातन परंपरा का पूंजी भूत उल्लास है। बाबा घुइसरनाथ धाम में दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। भगवान घुश्मेश्वर नाथ जी सबके मन प्राण आत्मा व चेतना को जागृत कर देने वाले महादेव है, उनकी आराधना पूजा साधना मनुष्य को कल्याण कारी तत्वों से भर देती है। सई नदी के पावन तट के किनारे स्थित बाबा घुश्मेश्वर नाथ मन्दिर के आस्था का जन सैलाब, एक दूसरे को सहयोग करता उमड़ता रहता है। बाबा घुश्मेश्वर नाथ का महत्व हमारे धर्म ग्रन्थों व वेदों पुराणों में भी उल्लेखित है। साधक और ज्ञानियों की चेतना के केन्द्र में शिव आदि काल से उपस्थित है। भोले बाबा का विश्लेषण वैदिक काल से अब तक लगातार किया जा रहा है फिर भी पूरा नहीं हुआ है, हो भी नहीं सकता है। भोले बाबा अनादि अनंत अविनाशी है।